*********
:वीरेन डंगवाल को अलविदा नहीं कह पायेंगे।
-वीर विनोद छाबड़ा
२८ सितंबर २०१५ को हिंदी के सुविख्यात कवि वीरेन डंगवाल का कैंसर से लड़ते हुए निधन हो गया था। उनकी याद में दिनांक ०३ अक्टूबर को लखनऊ के इप्टा ऑफिस में स्मृति सभा आयोजित हुई।
सभा की अध्यक्षता सुविख्यात कवि नरेश सक्सेना ने की।
सभा का संचालन करते हुए कवि चंद्रेश्वर पांडे ने वीरेन जी को समकालीन कविता का सशक्त हस्ताक्षर बताया। उनकी कविता में राष्ट्रीय चेतना को लेकर सच्ची कविता सामने आती है, छद्म राष्ट्रीयता का भंड़फोड़ करती है। वो सिर्फ कविता से नहीं जुड़े थे। शिक्षक भी रहे। पत्रकारिता से भी जुड़े। अमर उजाला कानपुर के संपादक भी रहे। कई जाने-माने विदेशी कवियों की रचनाओं का भारतीयकरण करते हुए अनुवाद भी किया। वो कहा करते थे मनुष्य को नष्ट कर सकते हो, लेकिन पराजित नहीं।
कवि श्याम अंकुरण ने बताया वीरेन जी को शासन ने कुचलने की बहुतेरी कोशिश की। लेकिन वो डटे रहे। उनकी कविता का ग़ालिब, त्रिलोचन से गहरा रिश्ता रहा। जन संस्कृति मंच की स्थापना में उनकी अहम भूमिका थी। उनकी कविताओं के अनुवाद कई भाषाओँ में हुए। अमृत प्रभात इलाहाबाद में स्तंभ लिखते रहे। उनकी कवितायेँ अलग रास्ता चुनती दिखती थीं। उनका मानना था कि इस देश को छोड़ कर नहीं जाना है इसे वापस पाना है। उनकी कविताओं में उनकी राजनैतिक चेतना झलकती थी। उनकी कविता हल्के फुल्के अंदाज़ से शुरू होती ज़रूर थी लेकिन अंत ऐसा नहीं होता था। ईश्वर को कटघरे में खड़ा करके गंभीर सवाल पूछते हैं।
समकालीन जनमत के संपादक और यूपी कम्युनिस्ट पार्टी (एमएल) के महामंत्री रामजी राय ने उन्हें याद करते हुए कहा कि साथियों को बड़ी आत्मीयता से दोस्त, पार्टनर और प्यारे से संबोधित करते हुए वीरेन अपने और दूसरों के बीच दीवार ढहाते थे। उनका व्यवहार अनौपचारिक था। उनकी कविता में अंतरंग मित्र की भाषा है। सख्ती भी है उनमें। व्यंग्य और कटाक्ष भी। आदमी ही आदमी को निर्मित करता है। वो कविता को पिपहरी कहते थे, जैसे बिस्मिल्लाह खां कहते थे मैं शहनाई नहीं बजता पिपहरी बजाता हूं। उनकी कविता में सपने की पीछे की सच्चाई होती थी। सामान्यबोध की अभिव्यक्ति है। वीरेन को अलविदा नहीं कह पाएंगे।
सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि वीरेन अलग कवि थे। कविता के माध्यम से सामाजिक चेतना लाये। उनके व्यक्तित्व से उनकी कविता को अलग करना मुश्किल है। आत्मीय और निश्छल थे। कुछ ओढ़े हुए नहीं मिले। जैसे वो थे वैसी ही कविता थी। कैंसर के बावजूद वो साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहे, पूरी जीवंतता और प्रतिबद्धता से जुड़े रहे। ऐसे व्यक्ति का जाना किसी कड़ी का टूट जाना है। बेहद दुःखद है।
कवियत्री कात्यायनी ने कहा वीरेन जी हमेशा कुछ नया लेकर आते थे। उनसे मिल कर कभी नहीं लगा वो बहुत बड़े हैं। वो ऊर्जा देकर जाते थे। बिना शोर-शराबे के अलग ही छवि बनाई। अपने लोगों की मिट्टी की गंध मिली उनकी कविता में। उनको व्याख्यापित करना कठिन है। आशावाद अंतरधारा के रूप में बहा। उनका व्यवहार उनकी कविताओं में प्रवाहित होता रहा।
इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश को आज के दौर में उनका जाना बहुत दुखद लगा। उनकी कविता आज के परिदृश्य को बखूबी अंकित करती है। वो कविताओं में चिंतक के रूप में दिखते हैं। शिक्षक और पत्रकार के रूप में भी। वो सदैव सांप्रदायिकता पर चोट करते रहे।
युवा कहानीकार, गायन और कविता से जुड़े हरी ओम ने बताया कि वीरेन जी ग्लैमर से दूर रहे। उनकी कविताओं पर भले तालियां नही बजती थीं लेकिन इसके बावजूद वो जेएनयू में सबके दिलों को खींचते रहे। आज जब कुतर्क नहीं बचा, सिर्फ़ हिंसा बची है तो उनकी बहुत याद आती है। वो खास कवि थे और खास कवितायें करते थे। लोकप्रियता के लिए कविता नहीं की। कविता में समोसा और जलेबी को शामिल करके उन्होंने आमजन की चिंता तलाशी।
कहानीकार प्रियदर्शन मालवीय ने बताया कि वीरेन जी ने मूल्यों और सिद्धांतों के लिये बड़े-बड़े पद त्याग दिए। वो पारिवारिक व्यक्ति भी थे। पिता की बीमारी के दृष्टिगत उन्होंने जेएनयू की प्रोफ़ेसरी ठुकरा दी। 'अमर उजाला' को बतौर संपादक उन्होंने सांप्रदायिकता से शिद्द्त से बचाये रखा। लेकिन जब मालिकान का बहुत दबाव पड़ा तो उन्होंने जाना ही बंद कर दिया। वो कहते थे सांप्रदायिकता अवैध निर्माण है। वो जातिवाद के भी विरोधी थे। कैंसर के बावजूद उनकी आवाज़ बुलंद थी। वो कहते रहे सरकस के हाथी की तरह सीधा नहीं बनो।
कवियत्री वंदना मिश्र ने बताया कि वीरेन जी उनके पारिवारिक मित्र थे। उनका जाना नहीं खला, लेकिन एक दोस्त के जाने का बेहद दुःख है। कवि चला गया लेकिन कविता ज़िंदा है।
कवियत्री वंदना मिश्र ने बताया कि वीरेन जी उनके पारिवारिक मित्र थे। उनका जाना नहीं खला, लेकिन एक दोस्त के जाने का बेहद दुःख है। कवि चला गया लेकिन कविता ज़िंदा है।
कवि और पत्रकार अजय सिंह को वीरेन की कविता अमरीकी साम्राज्य और मोदी राज के ऊपर वामपंथी विज्ञप्ति की तरह सामने आती है, उनकी ऐसी-तैसी करती है, जनवादी कविता है। वो दोस्ताना हैं, पाठक को साथ लेकर चलते हैं। विलक्षण प्रतिभा थी उनमें। सीखे हुए को जनप्रिय लोक कवि में रचा। वो यथास्थिति को तोड़ते हैं। साधारण को असाधारण बनाती है। वो वंचित को केंद्रीय स्तर पर लाते है। नए सिरे से दुनिया को देखते हैं। शोषण और अन्याय के विरूद्ध आवाज़ बुलंद करते हैं। चिल्ल-पों नहीं करते। आधुनिक हिंदी कविता को जनमुख बनाने में उनका बहुत योगदान है।
समालोचक अनिल त्रिपाठी ने बताया कि वीरेन जी ने बिलकुल सहज और आसान शब्दों में बहुतों की बात कही। आत्मीयता के स्तर पर वो बहुत बड़े इंसान थे। उनका 'प्यारे' कहना बहुत अलग होता था। युवा लेखकों की किताब खरीद कर पढ़ते थे। नए लोगों को बहुत प्यार करते थे।
कवि भगवान स्वरूप कटियार ने कहा कि वीरेन जी का जाना बहुत बड़ा नुकसान है।
कवि रविकांत ने कहा कि उनकी कविता जन-साधारण की कविता है। जनसामान्य की बात जनभाषा में होनी चाहिये।
लेखिका प्रज्ञा ने कहा कि वीरेन जी को थोड़ा पढ़ा है। लेकिन जितना भी पढ़ा है वो जुड़ाव के लिए पर्याप्त है। उनको पढ़ कर मालूम हुआ कि मानसिक तरंगें कहां तक ले जाती हैं।
अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रख्यात कवि नरेश सक्सेना का वीरेन जी के बारे में कथन था कि व्यक्तित्व का दायरा छोटा नहीं होता। अपने कर्मों से वो लंबे काल तक जाना जाता है। वीरेन ने जो कर्मठता दिखाई है उसे याद रखना चाहिए। सत्तर के दशक से पहले वो युवा होने के बावजूद लोकप्रिय थे। वरिष्ठ कवि भी उनसे मिलने जाते थे। वो सौंदर्यबोध को बहुत ध्यान रखते थे। गद्य में भी लिखते थे तो लय बनाये रखते थे। एक हसंता हुआ, मस्तमौला कवि चला गया। वीरेन को उनके व्यक्तित्व के लिए भी याद रखा जाना चाहिए।
---
०३-१०-२०१५साभार :
https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1682745838625705
*******************************************************************************
कल इस स्मृति सभा में बोलते हुये सभा अध्यक्ष नरेश सक्सेना साहब ने वीरेन डंगवाल जो उनसे उम्र में 10 वर्ष छोटे थे को 'सत्य ' व 'सिद्धान्त ' का कठोर पालक भी बताया। इन गुणों ने ही उनको महान बनाने में मदद की। वीरेन जी ने कभी भी अपने संपादक होने का एहसास करा कर किसी से कोई लाभ उठाने की कोशिश नहीं की भले ही उनको कष्ट उठाना पड़ा। भोपाल से लौटते वक्त की एक घटना का उल्लेख करते हुये उन्होने कहा कि सारी रात उनकी सीट पर बैठ कर बातें करते हुये गुज़ार दी किन्तु न खुद कहा और न ही सक्सेना साहब को टिकट निरीक्षक से यह कहने दिया कि वह 'अमर उजाला' के संपादक हैं अन्यथा वेटिंग कनफर्म करके उनको सीट आबंटित हो सकती थी । अन्य वक्ताओं ने भी डंगवाल साहब के व्यक्तिगत पक्ष को उज्वल बताया जिस कारण वह उज्वल समय की कल्पना कर सके।
स्मृति सभा में वीर विनोद छाबड़ा, चंदरेश्वर पांडे, श्याम अंकुरण, रामजी राय, अजय सिंह,डॉ हरिओम , इप्टा के राष्ट्रीय महामंत्री राकेश, प्रदीप घोष, राम किशोर, अनीता श्रीवास्तव, प्रज्ञा पांडे, कात्यायनी, वंदना मिश्रा, वीरेंद्र यादव, भगवान स्वरूप कटियार, अनिल त्रिपाठी, दिनकर कपूर, विजय राजबली माथुर आदि अनेक लोग उपस्थित थे।
(संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश )
No comments:
Post a Comment
कुछ अनर्गल टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम है.असुविधा के लिए खेद है.