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https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1687131944853761
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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सहज ही अपना बनाने की कला में सबसे आगे बिहार वाले।
-वीर विनोद छाबड़ा
कुछ देर पहले मेरे मित्र विजयराज बली माथुर ने ईटीवी बिहार के हवाले से पोस्ट डाली है कि बिहार की एक रैली में अपेक्षित भीड़ नहीं जुटी। इससे खिसिया कर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बिहारियों को बेवकूफ़ कह डाला।
इस बयान का नफ़ा-नुक्सान कितना होगा यह तो चुनाव पंडित जानें। लेकिन मुझे बिहारियों को बेवकूफ कहने पर दिली तकलीफ़ हुई। मुझे तो लगता है बिहारियों से ज्यादा चतुर कोई और है ही नहीं। सत्तर के शुरुआती दशक में लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरा कई बिहारी छात्रों से साबका पड़ा। सबसे ज्यादा मुझे आकर्षित किया इनकी भोजपुरी भाषा ने। शीरीं ज़बान। इतनी मिठास तो उर्दू बोलने वाले भी नहीं घोल सके। दो बिहारियों को बोलते हुए सुनता था तो कभी मन नहीं हुआ कि ये चुप हों।
भोजपुरी का मैं सबसे पहली बार तब क़ायल हुआ जब १९६२ में 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' देखी थी। वो स्कूली दिन थे। उसके बाद कई भोजपुरी फ़िल्में देखीं। लेकिन पहली बार 'भोजपुरी लाईव' लखनऊ यूनिवर्सिटी में ही सुनी।
मैं इंदिरा नगर में अस्सी के दशक की शुरुआत में ही आ गया था। यह इलाका तब निर्मित हो रहा था। एशिया की सबसे बड़ी कॉलोनी कहा गया था तब इसे। साठ प्रतिशत श्रमिक बिहार के सासाराम आदि क्षेत्रों से ही संबंधित थे। मेरा घर बनाने वाले भी बिहार के थे। बगल में गोमती नगर भी इन्हीं बिहारियों की मेहनत से बना।
नौकरी शुरू की तो वहां भी बिहार से आये कर्मचारियों की खासी संख्या थी। अपने अड़ोस-पड़ोस में भी खासी संख्या में हैं। सब स्थाई निवासी हो गए हैं यहां के। मेरे पड़ोसी सासाराम से हैं। अपने घर का नाम भी सासाराम निवास रखे हैं। मैंने इनमें एक विशेषता देखी है कि किसी को सहज ही 'विधिवत' अपना बना लेते हैं। व्यवहार से भी और ज़बान से भी। इस मामले में पंजाबियों से ये निश्चित ही बीस हैं।
आप अगर उनके मित्र हैं तो संकट के समय दीवार बन जायेंगे। लड़ने-भिड़ने के साथ-साथ ज़रूरत पड़ने पर जान भी दे देंगे। मेरे पास आंकड़े नहीं हैं, लेकिन सुनी हुई बात है कि बिहार के लोग हिसाब-किताब में बहुत तेज होते हैं। कभी कहा जाता था कि आईएएस में बिहार के लोग ही ज्यादा हुआ करते थे। और इसके अलावा साहित्यिक पुस्तकें और पत्र-पत्रिकायें यहीं खरीदी और पढ़ी जाती थीं। सैकड़ों साल पहले शिक्षा का केंद्र यहीं नालंदा में ही तो था। कूटनीति सिखाने वाले चाणक्य की जन्मभूमि और कर्मभूमि बिहार ही तो है। यहीं के कौटिल्य ने ही अर्थशास्त्र पढ़ाया है। गणित के मर्मज्ञ आर्यभट्ट को भला कौन भूल सकता है।
यह बिहार ही है जहां बोलचाल में सबसे ज्यादा अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग होता है। दिवंगत शरद जोशी भी कह गए हैं कि अंग्रेज़ कौम और अंग्रेज़ी अगर ख़त्म भी हो जाए तो भी कब्र में लेटी अंग्रेज़ों की आत्मा को यह सुख रहेगा कि अंग्रेज़ी बिहार में ज़िंदा है। और फिर क्रांतियों का जनक तो बिहार रहा ही है। कई बार रथों के रास्ते भी रोके हैं और बदले हैं इसने।
यूं एनडीटीवी के रवीश के प्राईम टाईम को देखते हुए लगता है मैं उसे देख नहीं रहा हूं उनके साथ बिहार घूम रहा हूं। आदमी चाहे छोटा हो या बड़ा, ये बिहार वाले जहां भी जाते हैं, अपनी हाड़-तोड़ मेहनत और बौद्धिकता से उस प्रदेश और उस देश के नमक का हक़ ज़रूर अदा करते हैं।
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२०-१०-२०१५
-वीर विनोद छाबड़ा
कुछ देर पहले मेरे मित्र विजयराज बली माथुर ने ईटीवी बिहार के हवाले से पोस्ट डाली है कि बिहार की एक रैली में अपेक्षित भीड़ नहीं जुटी। इससे खिसिया कर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बिहारियों को बेवकूफ़ कह डाला।
इस बयान का नफ़ा-नुक्सान कितना होगा यह तो चुनाव पंडित जानें। लेकिन मुझे बिहारियों को बेवकूफ कहने पर दिली तकलीफ़ हुई। मुझे तो लगता है बिहारियों से ज्यादा चतुर कोई और है ही नहीं। सत्तर के शुरुआती दशक में लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरा कई बिहारी छात्रों से साबका पड़ा। सबसे ज्यादा मुझे आकर्षित किया इनकी भोजपुरी भाषा ने। शीरीं ज़बान। इतनी मिठास तो उर्दू बोलने वाले भी नहीं घोल सके। दो बिहारियों को बोलते हुए सुनता था तो कभी मन नहीं हुआ कि ये चुप हों।
भोजपुरी का मैं सबसे पहली बार तब क़ायल हुआ जब १९६२ में 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' देखी थी। वो स्कूली दिन थे। उसके बाद कई भोजपुरी फ़िल्में देखीं। लेकिन पहली बार 'भोजपुरी लाईव' लखनऊ यूनिवर्सिटी में ही सुनी।
मैं इंदिरा नगर में अस्सी के दशक की शुरुआत में ही आ गया था। यह इलाका तब निर्मित हो रहा था। एशिया की सबसे बड़ी कॉलोनी कहा गया था तब इसे। साठ प्रतिशत श्रमिक बिहार के सासाराम आदि क्षेत्रों से ही संबंधित थे। मेरा घर बनाने वाले भी बिहार के थे। बगल में गोमती नगर भी इन्हीं बिहारियों की मेहनत से बना।
नौकरी शुरू की तो वहां भी बिहार से आये कर्मचारियों की खासी संख्या थी। अपने अड़ोस-पड़ोस में भी खासी संख्या में हैं। सब स्थाई निवासी हो गए हैं यहां के। मेरे पड़ोसी सासाराम से हैं। अपने घर का नाम भी सासाराम निवास रखे हैं। मैंने इनमें एक विशेषता देखी है कि किसी को सहज ही 'विधिवत' अपना बना लेते हैं। व्यवहार से भी और ज़बान से भी। इस मामले में पंजाबियों से ये निश्चित ही बीस हैं।
आप अगर उनके मित्र हैं तो संकट के समय दीवार बन जायेंगे। लड़ने-भिड़ने के साथ-साथ ज़रूरत पड़ने पर जान भी दे देंगे। मेरे पास आंकड़े नहीं हैं, लेकिन सुनी हुई बात है कि बिहार के लोग हिसाब-किताब में बहुत तेज होते हैं। कभी कहा जाता था कि आईएएस में बिहार के लोग ही ज्यादा हुआ करते थे। और इसके अलावा साहित्यिक पुस्तकें और पत्र-पत्रिकायें यहीं खरीदी और पढ़ी जाती थीं। सैकड़ों साल पहले शिक्षा का केंद्र यहीं नालंदा में ही तो था। कूटनीति सिखाने वाले चाणक्य की जन्मभूमि और कर्मभूमि बिहार ही तो है। यहीं के कौटिल्य ने ही अर्थशास्त्र पढ़ाया है। गणित के मर्मज्ञ आर्यभट्ट को भला कौन भूल सकता है।
यह बिहार ही है जहां बोलचाल में सबसे ज्यादा अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग होता है। दिवंगत शरद जोशी भी कह गए हैं कि अंग्रेज़ कौम और अंग्रेज़ी अगर ख़त्म भी हो जाए तो भी कब्र में लेटी अंग्रेज़ों की आत्मा को यह सुख रहेगा कि अंग्रेज़ी बिहार में ज़िंदा है। और फिर क्रांतियों का जनक तो बिहार रहा ही है। कई बार रथों के रास्ते भी रोके हैं और बदले हैं इसने।
यूं एनडीटीवी के रवीश के प्राईम टाईम को देखते हुए लगता है मैं उसे देख नहीं रहा हूं उनके साथ बिहार घूम रहा हूं। आदमी चाहे छोटा हो या बड़ा, ये बिहार वाले जहां भी जाते हैं, अपनी हाड़-तोड़ मेहनत और बौद्धिकता से उस प्रदेश और उस देश के नमक का हक़ ज़रूर अदा करते हैं।
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२०-१०-२०१५
https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1687131944853761
संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश
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