Thursday, 29 December 2016

कृषि में बैंक कर्ज और नोटबंदी ------ मुकेश त्यागी


Mukesh Tyagi
28-12-2016
कृषि में बैंक कर्ज और नोटबंदी :
'सवा सेर गेहूँ' कहानी हम लोगों ने पढ़ी है और 'दो बीघा जमीन' जैसी फ़िल्में भी देखीं हैं जो गाँवों में सूदखोरों के भयंकर शोषण को दिखाती थीं। इससे ही जुडी कुछ बातें नए ज़माने के पूँजीवादी सूदखोरी की। 
1947 में राजनीतिक सत्ता में आया पूँजीपति वर्ग आर्थिक रूप से इतना ताकतवर नहीं था कि बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण कर सके। इसलिए पूँजी की ताकत जुटाने के लिए उसने सरकारी पूँजी निवेश द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से सीमित, क्रमिक औद्योगिकीकरण का रास्ता चुना। कृषि में उसकी नीति सीमित जमींदारी-उन्मूलन, चकबंदी, कृषि-आधारित व्यवसायों, आदि के द्वारा एक जहाँ एक नया धनी किसान वर्ग खड़ा करना था जो गाँव में पूँजीवादी शासन का आधार बने, वहीँ यह भी निश्चित करना था कि बड़े पैमाने पर कृषि से शहरों की और पलायन न हो, क्योंकि इतनी बड़ी बेरोजगारों की फ़ौज उसे खतरा नजर आती थी। इस लिए थोड़ी बहुत जमीन, पशुओं, तालाब, आदि के सहारे इन सबको किसी तरह जिन्दा रहने लायक खेती-व्यवसाय आदि में लगाए रखने के लिए सरकारी-सहकारी बैंकों, सहकारी समितियों आदि द्वारा किसानों को कर्ज देने की योजनाएं लाईं गईं और 1951 के 70% के मुकाबले 1981 में सूदखोरों का देहाती कर्ज में हिस्सा 17% ही रह गया। 
लेकिन 1980 के दशक तक बड़ी इजारेदार पूँजी का मालिक बन चुका पूँजीपति वर्ग दिशा बदल रहा था और दुनिया भर के साम्राज्यवादी पूँजी के साथ मिलकर भारत को उनके लिए सस्ते उत्पादन का केंद्र बनाने की कोशिश में जुट गया था। अब सार्वजनिक क्षेत्र उसके लिए अपनी भूमिका काफी हद तक खो चुका था और वह औद्योगीकरण को अपने हाथ में लेने में लगा था - आर्थिक सुधार! अब उसे अपने उद्योगों के लिए भारी संख्या में सस्ते मजदूरों की फ़ौज चाहिए थी जिसका एक ही स्रोत मुमकिन था बड़े पैमाने पर छोटे-सीमांत किसानों की कंगाली से उन्हें शहर में मजदूरी के लिए पलायन पर विवश करना। इसके विभिन्न तरीकों में एक कृषि में बैंक कर्ज की सप्लाई को सीमित करना भी है। इसके चलते फिर से ग्रामीण कर्ज में सूदखोरों को हिस्सा बढकर 2002 में 27% और 2013 में 44% हो गया। 
अब नोटबंदी में सहकारी बैंकों/समितियों पर खास तौर पर रोक लगाकर इस प्रक्रिया को और तेजी दी गई है। फसल की बिक्री का पैसा ना मिलने, अगली फसल बोने तथा रोजमर्रा के जीवन के लिए पैसे की जरुरत वाले छोटे-मध्यम किसानों को फिर से धनी किसानों और आढ़तियों से 3 से 5% महीना (36 से 60% सालाना!) के खून निचोड़ू सूद पर कर्ज लेने को मजबूर होना पड़ रहा है। कुछ रिपोर्टों के अनुसार तो कुछ जगहों पर 10% तक के सूद की खबरें आईं हैं। 
नतीजा होगा, बड़े पैमाने पर इन कर्जदार छोटे किसानों-कृषि सम्बंधित व्यवसायियों की कंगाली और इनके जमीन-मकानों, आदि पर सूदखोरों द्वारा कब्ज़ा और इनकी परिवारों सहित शहरों में असंगठित क्षेत्र के उद्योगों में मजदूरों की फ़ौज में भर्ती और झोंपड़पट्टियों में निवास।
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28-12-2016 

Wednesday, 28 December 2016

ज़मीन से जुड़ाव ख़त्म ------ फखरे आलम / यूसुफ अंसारी

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28-12-2016 


28-12-2016 





    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday, 23 December 2016

भारत सरकार इस तथ्य को दबा रही है कि नोटबंदी के फैसले से भारत को दसियों अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है ------ स्टीव फोर्ब्स

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प्रतिष्ठित अमेरिकी बिज़नेस पत्रिका फोर्ब्स के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले से देश को भारी नुकसान हो सकता है। फोर्ब्स पत्रिका के 24 जनवरी 2017 के संस्करण में छपे लेख में कहा गया है कि मोदी सरकार के इस फैसले से भारत के पहले से ही गरीब लाखों लोगों की हालत और खराब हो सकती है। फोर्ब्स पत्रिका के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ स्टीव फोर्ब्स ने लिखा है, “देश की ज्यादातर नकदी को बंद कर दिया गया। स्तब्ध नागरिकों को नोट बदलने के लिए कुछ ही हफ्तों का समय दिया गया।”
फोर्ब्स के अनुसार, “आर्थिक उथलपुथल को इस बात से भी बढ़ावा मिला कि सरकार पर्याप्त मात्रा में नए नोट नहीं छाप पाई…नए नोटों का आकार भी पुराने नोटों से अलग है जिसकी वजह से एटीएमों के लिए बड़ी दिक्कत खड़ी हो गई।” लेख में कहा गया है, “भारत हाई-टेक पावरहाउस है लेकिन देश के लाखों लोग अभी भी भीषण गरीबी में जी रहे हैं। ” लेख में कहा गया है कि नोटबंदी के फैसले के कारण भारतीय शहरों में काम करने वाले कामगार अपने गांवों को लौट गए हैं क्योंकि बहुत से कारोबार बंद हो रहे हैं।
फोर्ब्स ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नकद पर अत्यधिक निर्भर होने का मुद्दा उठाते हुए कहा है कि यहां ज्यादातर लोग नियमों और टैक्स के अतिरेक की वजह से अनौपचारिक तरीके अपनाते हैं। फोर्ब्स ने नोटबंदी की तुलना 1970 सत्तर के दशक में लागू की गई नसबंदी से की है। फोर्ब्स ने लिखा है कि 1970 के दशक में लागू की गई नसबंदी के बाद सरकार ने ऐसा  अनैतिक फैसला  नहीं लिया था।

फोर्ब्स ने नोटबंदी के फैसले को जनता की संपत्ति की लूट बताया है। फोर्ब्स ने लिखा है,  “भारत सरकार ने उचित प्रक्रिया के पालन का दिखावा भी नहीं किया- किसी लोकतांत्रिक सरकार का ऐसा कदम स्तब्ध कर देने वाला है।” फोर्ब्स के अनुसार भारत सरकार इस तथ्य को दबा रही है कि नोटबंदी के फैसले से भारत को दसियों अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने आठ नवंबर को 500 और 1000 के बैंक नोटों को उसी रात 12 बजे से बंद कि जाने की घोषणा की जिसके बाद से ही इसे लेकर आम लोगों के साथ ही विशेषज्ञों के बीच बहस जारी है। सरकार ने बंद किए जा चुके नोटों को बैंकों और डाकघरों में जमा करने के लिए 30 दिसंबर तक का समय दिया है। वहीं 30 दिसंबर तक बैंकों से हर हफ्ते 24 हजार रुपये और एटीएम से एक दिन में प्रति कार्ड 2500 रुपये निकालने की सीमा तय की गई है।
साभार : 
http://www.jansatta.com/international/forbes-magazine-said-demonetization-by-narendra-modi-grovernment-will-caused-tens-billion-dollar-one-time-windfall-it-is-theft-of-public-property/214171/


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25-12-16

25-12-16






संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Monday, 19 December 2016

एक नजर भाजपा के घोटाले की लिस्ट पर ------ अवध नारायण चौहान


Awadhnarayan Chouhan  : बीजेपी हमेशा कांग्रेस के घोटाले दिखाकर खुद को देशभक्त साबित करती है और जनता को बेवकूफ बनाती है। जरा नजर डालते हैं भाजपा के घोटाले की लिस्ट पर।

नोट - ये सिर्फ कुछ ही घोटालो की झलक है।

1- कारगिल ताबूत घोटाले, कारगिल उपकर दुरूपयोग घोटाला।
2- दूरसंचार प्रमोद महाजन - घोटाले (रिलायंस)
3-अरुण शौरी निजी खिलाड़ियों को बेलआउट पैकेज यूटीआई घोटाले
4- साइबर स्पेस इन्फोसिस लिमिटेड घोटाले
5- पेट्रोल पंप और गैस एजेंसी आवंटन घोटाले
6- जूदेव घोटाले सेंटूर होटल में डील
7- दिल्ली भूमि आवंटन घोटाले
8- हुडको घोटाले राजस्थान में Landscams (राज)
9- बेल्लारी खनन और रेड्डी ब्रदर्स घोटाले
10- मध्य प्रदेश में कुशाभाऊ ठाकरे ट्रस्ट घोटाले
11- कर्नाटक में भूमि आवंटन (येदियुरप्पा)
13-,पंजाब रिश्वत मामले
14- उत्तराखंड पनबिजली घोटाले
14- छत्तीसगढ़ खानों में भूमि घोटाले
15- पुणे भूमि घोटाले (भाजपा नेता नितिन गडकरी शामिल)
16- उत्तराखंड में गैस आधारित पावर प्लांट घोटाले
17- फर्जी पायलट घोटाले सुधांशु मित्तल और विजय कुमार मल्होत्रा
18- अरुण शौरी द्वारा वीएसएनएल विनिवेश घोटाला
19-अरविंद पार्क लखनऊ घोटाले
20- आईटी दिल्ली प्लॉट आबंटन घोटाले
21- चिकित्सा प्रोक्योर्मेंट घोटाले - सी पी ठाकुर
22- बाल्को विनिवेश घोटाले जैन हवाला मामले लालकृष्ण आडवाणी
23- 1998 खाद्यान घोटाला 35,000 करोड़
24- 2000 चावल निर्यात घोटाला 2,500 करोड़ का
25-,2002 उड़ीसा खदान घोटाला7,000 करोड का
26- 2003 स्टाम्प घोटाला 20,000 करोड़ का
27- 2002 संजय अग्रवाल गृह निवेश घोटाला 600 करोड़ का
28- 2002 कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज घोटाला 120 करोड़ का
29- 2001 केतन पारिख प्रतिभूति घोटाला 1,000 करोड़ का
30-2001 UTI घोटाला 32 करोड़ का
31-2001 डालमिया शेयर घोटाला 595 करोड़ का
32- 1998 टीक पौधों का घोटाला 8,000 करोड़ का
33- 1998 उदय गोयल कृषि उपज घोटाला 210 करोड़ का
34-1997 बिहार भूमि घोटाला 400 करोड़ का
35- 1997 SNC पावार प्रोजेक्ट घोटाला 374 करोड़
36- 1997 म्यूच्यूअल फण्ड घोटाला 1,200 करोड़ का
37- 1996 उर्वरक आयत घोटाला 1,300 करोड़ का
38- 1996 यूरिया घोटाला 133 करोड का ये 1999 से 2004 तक के बीजेपी सरकार के घोटाले हैं। मोदी सरकार के देखिये
39- अभी का व्यापम ,
40- छत्तीसगढ़ का 36000 करोड का चावल घोटाला ,
41- पंजाब का 12000 करोड का गेहुं घोटाला,
42- राजस्थान का माईंस घोटाला ,
43- मनुस्मृति का बुक्स घोटाला,
44- ललित गेट ,
45- गुजरात का जमीन घोटाला,
46- हेमा मालिनी जमीन घोटाला,
47 - एल ई डी बल्ब घोटाले
48- गुजरात में मोदी ने 1 लाख 25 हजार करोड का हिसाब सी नही दिया सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार ।
36000 करोड़ का चावल घोटाला छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री, उनका परिवार, उनके रिश्तेदार, स्टाफ, पीए सब शामिल, व्यापमं घोटाला, महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे का 206 करोड़ का घोटाला, 271 करोड़ का कार बाइक घोटाला हैदराबाद में वैंकया नायडू के पुत्र आरोपी, मोदी राज में गुजरात का 27000 करोड़ का टैक्स घोटाला, 1 रुपये मीटर के भाव अदानी को 16000 एकड़ जमीन का घोटाला। स्मार्ट सिटी की बिना किसी जमीनी आधार दस्तावेज वाली योजना के नाम पर 1 लाख करोड़ का आवंटन एक और घोटाला।
पिछले साल फरवरी में पेट्रोल 63 रूपए लीटर और कच्चा तेल 45-50 डॉलर प्रति बैरल था अब जब कच्चा तेल 29 डॉलर प्रति बैरल पर है तो पेट्रोल के दाम 66 रूपए प्रति लीटर। ये है इनकी लूटनीति।
पिछली सरकार ने 2G स्पेक्ट्रम का 20% भाग बेचा था 62000 करोड़ रुपए में, तब संघियों के फेवरेट CAG ने 1,76,000 करोड़ का घाटा बताया था, अब मोदी जी ने बचा हुआ 80% स्पेक्ट्रम 1,10,000 करोड़ में 20 साल की उधारी में बेच दिया जिसकी ब्याज सहित 21 लाख करोड़ कीमत थी, कहाँ गया घाटा?
भाजपा वालो जवाब दो









Monday, 12 December 2016

WELL SAID और WELL DONE में अच्छा कौन है ? ------ Tajinder Singh

Tajinder Singh




Wednesday, 7 December 2016

लेदर -फुटवियर इंडस्ट्री सरकार की नोटबंदी से बर्बाद : मौजूदा लेदर उद्योग का स्थान बड़ी कारपोरेट पूंजी को ------ चंद्र प्रकाश झा / जगदीश्वर चतुर्वेदी

लाखों लोगों को अपनी रोजी-रोटी का संकट : 

Jagadishwar Chaturvedi

Chandra Prakash Jha की वॉल से साभार -
नोट बन्दी तथ्यपत्रक 10
( Via Vivekanand Tripathi )
लेदर -फुटवियर इंडस्ट्री सरकार की नोटबंदी से बर्बाद
नोट बंदी की वजह से पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान रखने वाला आगरा लेदर व फुटवियर इंडस्ट्री पर बहुत ही बुरा असर हुआ है। गौरतलब है कि चीन के बाद भारत लेदर उद्योग व निर्यात में दूसरे स्थान पर है और सालाना कारोबार लगभग 30 हजार करोड़ का है जिसमें अकेले आगरा का शेयर 10 हजार करोड़ है। 2013-14 में कुल निर्यात अरब अमेरिकी डालर था। पूरे इस उद्योग में 25 लाख लोग लगे हैं। अकेले आगरा में प्रतिदिन डेढ़ लाख पेयर शूज का उत्पादन होता है। जिसमें 60 बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, 3000 छोटे प्रतिष्ठान और 30 हजार काॅटेज/हाउस होल्ड यूनिट काम कर रही हैं और आगरा शहर की लगभग एक तिहाई लेदर-फुटवियर उद्योग पर निर्भर है जिसमें लगभग 5 लाख मजदूरों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलता है। अभी आगरा का लेदर-फुटवियर उद्योग निर्यात में 35 फीसदी व घरेलू बाजार में 65 फीसदी योगदान करता है। वर्कर्स फ्रंट की टीम ने 2 दिसम्बर को आगरा में लेदर-फुटवियर के औद्योगिक प्रतिष्ठानों व घरेलू उत्पादन इकाईयों को मौके पर जाकर देखा। नोट बंदी के बाद बड़े प्रतिष्ठानों में 80 फीसदी से ज्यादा ठेका/दिहाड़ी मजदूरों ने काम छोड़ कर चले गये हैं और उत्पादन एक तिहाई से भी कम हो गया है। इसी तरह घरेलू उत्पादन में हालात् और ज्यादा खराब हो गये हैं जहां स्टाक के कच्चे माल से कुछ उत्पादन तो जारी है लेकिन सप्लाई एकदम ठप है जिससे नया कच्चा माल खरीदने के लिए पैसा ही नहीं है और अगले कुछ दिनों में इन स्माल स्केल यूनिटों में भारी असर होगा। अभी भी न केंद्र और न ही राज्य सरकार की तरफ से कोई भी ठोस उपाय नहीं किये जा रहे हैं जिससे भविष्य में इस पूरे उद्योग पर भारी संकट आ सकता है जिससे न सिर्फ आगरा बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भारी असर होगा। जानकार बताते हैं कि अपने देश में 2000 पेयर शूज का उत्पादन करने की क्षमता से बड़ी यूनिटे नहीं है जबकि चीन में 40 हजार पेयर शूज प्रतिदिन उत्पादन की यूनिट है। यहां पर भी बड़े कारपोरेट घराने इस क्षेत्र में अपनी पूंजी लगाना चाहते हैं जिसके लिए स्माल स्केल व मध्यम दर्जे की औद्योगिक इकाईयों को बर्बाद होना तय है। नोट बंदी से वे परिस्तियां पैदा हो सकती हैं जिससे भविष्य मौजूदा लेदर उद्योग का स्थान बड़ी कारपोरेट पूंजी ले ले। जो भी हो इससे भारी पैमाने पर मजूदरों की छटंनी हो सकती है र परोक्ष रोजगार में भारी कमी होगी। इसी तरह बनारस का बुनकर उद्योग, अलीगढ़ का ताला उद्योग सहित विभिन्न विभिन्न लघु-कुटीर उद्योग जो पहले ही सरकार की नीतियों से बर्बाद हो रहे हैं नोट बंदी से और ज्यादा संकटग्रस्त हो गया है और लाखों लोगों को अपनी रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है।
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फेसबूक कमेंट्स : 
07-12-2016 

Tuesday, 6 December 2016

कैशलेस की बात करना देश के रुपये में से विदेशियों को हिस्सा देना ही है ------ गिरीश मालवीय

डिजिटल और कैशलेस के शोर का क्या मतलब है? :


उत्तर प्रदेश की राजधानी तक का यह हाल है कि, बैंको के साथ साथ पोस्ट आफ़िसों में भी नई मुद्रा नहीं पहुंचाई गई है। जिन बुज़ुर्गों को पेंशन या अपना MIS का ब्याज लेकर घर खर्च चलाना होता है उनके सामने गंभीर संकट है। भोजन तो उधार लेकर भी खाया जा सकता है लेकिन सफाई कर्मी,अखबार,चौकीदार के भुगतान क्या वे पे टी एम या डेबिट कार्ड से ले सकते हैं? मजदूर जिसका रोजगार नोटबंदी ने छीन लिया है वह क्या करे?नोटबंदी द्वारा काला बाज़ारियों का धन नई मुद्रा से बदल दिया गया है और साधारण जनता को भूखे मरने को छोड़ दिया गया है। 'भूख इंसान को गद्दार बना देती है' , 'बुभुक्षुतम किं न करोति पापम ?' 
इंतज़ार किया जा रहा है कि, कब भूखी जनता बगावत करे और तब राष्ट्र द्रोह का आरोप लगा कर उसे कुचलने के लिए अर्द्ध सैनिक तानाशाही थोप दी जाये। देश को गृह युद्ध में धकेल कर यू एस ए की योजना ( जिसके अनुसार भारत को तीस भागों में विभक्त किया जाना है ) को साकार करने का उपक्रम है नोटबंदी ।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1254666757928631




डिजिटल कर रहे हैं , आधार कार्ड से लिंक कर रहे हैं लेकिन यह आधार कार्ड पूरे देश में मान्य नहीं किया जा रहा है। वर्तमान केंद्र सरकार के मित्र रिलायंस जियो पूरे उत्तर प्रदेश भी नहीं केवल यू पी ईस्ट के लोगों का ही आधार कार्ड मान्य कर रहा है। तब उत्तराखंड,हिमाचल,दिल्ली के लोग यू पी में अपने आधार कार्ड से कैसे ख़रीदारी करेंगे? फिर डिजिटल और कैशलेस के शोर का क्या मतलब है?

https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1252039961524644


04-12-2016 
(विजय राजबली माथुर )

"कैशलेस का असली लाभ" :

साभार :
https://www.facebook.com/girish.malviya.16/posts/1339142779450700


Girish Malviya

मेरा अनुरोध है कि "कैशलेस का असली लाभ" किसे हो रहा है इस तथ्य को समझने के लिए इस लेख को बेहद ध्यान से पढ़े...................
मेरी साधारण समझ के अनुसार हर तरह के व्यापार धंधों के लिए कैशलेस का मतलब क्रेडिट और डेबिट कार्ड आधारित व्यवस्था ही है.................
यह एक तरह की पेमेंट बैंकिग है.................
क्या आपको इस व्यवस्था के लिए तैयारी दिख रही है ,.....एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत को कैशलेस इकोनोमी बनाने के लिए दो करोड़ पीओएस( swipe mahine) की जरुरत है। अभी लगभग सिर्फ 12 लाख स्वाइप मशीन हैं जो भारत के आकार को देखते हुए काफी कम है। इसका एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण व अ‌र्द्ध शहरी क्षेत्रों में लगाया जाएगा वहा भी पहले बिजली और इंटरनेट की उपलब्धता को सुनिश्चित करना होगा तभी यह पध्दति कारगर होगी...................
अब इस पध्दति की असलियत जान लीजिए जिसके लिए यह लेख लिखा गया है ....................
पहला इन् मशीनों को विदेशो से आयात किया जा रहा है जिससे बड़े पैमाने पर देश की पूंजी विदेश में जा रही है...............
दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है, क़ि देश के लगभग 80 फीसदी डेबिट और क्रेडिट कार्ड ,मास्टर और वीजा कंपनियों के है जो पूर्ण रूप से विदेशी है .......हर ट्रांसिक्शन पर भारतीय बैंके लगभग 2 रुपये 80 पैसे मिनिमम इन कंपनियों को देती है और कैशलेस के इस दौर में हमारे वित्तीय लेन-देन का लगभग आधे से ज्यादा तंत्र इन्हीं कार्डों पर आश्रित हो गया है .........
चाहे आप मोबाइल एप से भुगतान करे चाहे आप अन्य किसी और माध्यम का सहारा ले,......आप अपने हर ट्रांसिक्शन से इन विदेशी कंपनियों को लाभ पुहंचा रहे है और इसीलिए मास्टर कार्ड ने कैशलेस के समर्थन मे देश भर के बड़े अख़बारों मे पूरे पेज के विज्ञापन दिए है.....................
इन ट्रांसिक्शन से इन विदेशी कम्पनियो को कितना अधिक फायदा है इसे इस उदाहरण से समझें कि यदि आपने किसी वस्तु के लिए आनलाइन पेमेंट किया या कोई बिल अदा किया। या स्वाइप मशीन से भुगतान किया .........तकनीकी कारणों से पेमेंट फेल हो गया लेकिन राशि आपके खाते से कट गई तो जितने दिन राशि आपके खाते में वापस नहीं आएगी, उसमें इन विदेशी कम्पनियों का बहुत फायदा होगा एक तो अंतरणों की संख्या एक से बढ़कर दो हो जाएगी। ऊपर से, पेमेंट के लम्बित होने के वक्त का ब्याज भी उनकी जेब में जाएगा। ....................
चूंकि कैशलेस की तलवार अब बैंकों के सर पर लटकी है इसलिए इन विदेशी कंपनियों से सेवाएं लेना भी बैंकों की मजबूरी है और इन्हें ही भारत के कैशलेस होने से असली फायदा हुआ है यह कम्पनी अपनी शर्तों पर ही काम किया करती हैं इन्ही कंपनियों के सेवा शुल्क भी इतना ज्यादा है कि बैंकें एटीएम स्थापना के बाद अन्य शुल्क लगाकर इस खर्च की भरपाई किया करती हैं।...............
ऐसे में आवश्यकता थी कि किसी न किसी तरह विदेशी कार्डों का आधिपत्य समाप्त या बेहद कम कर दिया जाए 2011-12 मे rupay नामक पेमेंट सिस्टम की स्थापना इसी मोनोपॉली को तोड़ने के लिए की गयी थी लेकिन अभी भी यह सिस्टम जनधन खातों तक ही सीमित है बड़े ट्रासिक्शन की इसमें सुविधा नहीं है,..........सभी बड़े देशों ने कैशलेस अपनाने से पहले अपने देश के पेमेंट बैंकिंग को मजबूत किया है और उसके बाद ही कैशलेस को लागू किया है .....................

बिना इस सिस्टम को मजबूत किये इस कैशलेस की बात करना देश के रुपये में से विदेशियों को हिस्सा देना ही है और विडम्बना यह है कि कल तक चाइनीज सामान खरीदने के विरोधी आज इन विदेशी paytm और मास्टर और वीजा की गुलामी करने को सहर्ष तैयार है..................
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6-12-16

6-12-16

Wednesday, 30 November 2016

नोटबंदी एक बड़ा घोटाला और ‘ब्लैक इमरजेंसी’ ------ ममता बनर्जी


शिव बदन यादव
लखनऊ: पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर नोटबंदी के जरिए जनता के संवैधानिक अधिकारों का हनन करने का आरोप लगाते हुए आज कहा कि अपने सांसदों और विधायकों के बैंक खातों का हिसाब मांगने वाले मोदी को इसकी शुरुआत खुद तथा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से करनी चाहिए.
ममता ने सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ संयुक्त रूप से नोटबंदी के खिलाफ यहां आयोजित रैली में मोदी को तुगलक और हिटलर से भी ज्यादा स्वेच्छाचारी शासक बताते हुए ‘नोटबंदी वापस लो नहीं तो मोदी जी वापस जाओ’ का नारा दिया. उन्होंने कहा कि ‘छुपा रस्तम’ बनकर भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल इत्यादि का धन विदेशी बैंकों में जमा करने के बाद जनता के धन पर धावा बोलने वाले प्रधानमंत्री आने वाले वक्त में लोगों की जमीन और घर भी छीन लेंगे.
उन्होंने कहा कि मोदी ने अपने सांसदों और विधायकों के खातों का हिसाब मांगा है लेकिन उन्हें इसकी शुरआत खुद से और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से करनी चाहिए. नोटबंदी से ऐन पहले भाजपा और उसके अध्यक्ष के नाम पर बड़े पैमाने पर जमीनें खरीदी गईं.
नोटबंदी को बड़ा घोटाला और ‘ब्लैक इमरजेंसी’ करार देते हुए ममता ने इसके खिलाफ अभियान को जनांदोलन बनाने का आहवान किया और कहा कि यह आजादी की लड़ाई है और हमें इसे छोड़ना नहीं चाहिए. मोदी के कारण देश की आजादी को खतरा है.

उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान एक व्यक्ति की मर्जी से नहीं बल्कि जनता की मर्जी से चलता है. मोदी को यह याद रखना होगा. मोदी जबर्दस्ती कर रहे हैं. यहां तक कि आपातकाल में भी ऐसा नहीं हुआ था.

https://www.facebook.com/shiv.yadav.370515/posts/1280925598647662




Sunday, 27 November 2016

नोट बैन निरंकुश कार्रवाई ------ प्रोफेसर अमर्त्य सेन

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भारत रत्न और नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने मोदी सरकार द्वारा 500 और 1000 के नोट बैन को निरंकुश कार्रवाई जैसा बताया है। उन्होंने कहा है कि डिमोनेटाइजेशन सरकार की अधिनायकवादी प्रकृति को दर्शाता है। इंडियन एक्सप्रेस से खास बातचीत में प्रोफेसर सेन ने कहा, “लोगों को अचानक यह कहना कि आपके पास जो करेंसी नोट हैं वो किसी काम का नहीं है, उसका आप कोई इस्तेमाल नहीं कर सकते, यह अधिनायकवाद की एक अधिक जटिल अभिव्यक्ति है, जिसे कथित तौर पर सरकार द्वारा जायज ठहराया जा रहा है क्योंकि ऐसे कुछ नोट कुछ कुटिल लोगों द्वारा काला धन के रूप में जमा किया गया है।” उन्होंने कहा, “सरकार की इस घोषणा से एक ही झटके में सभी भारतीयों को कुटिल करार दे दिया गया जो वास्तविकता में ऐसा नहीं हैं।”
नोटबंदी से लोगों को हो रही मुश्किलों पर उन्होंने कहा, “केवल एक अधिनायकवादी सरकार ही चुपचाप लोगों को इस संकट में झेलने के लिए छोड़ सकती है। आज लाखों निर्दोष लोगों को अपने पैसे से वंचित किया जा रहा है और अपने स्वयं के पैसे वापस लाने की कोशिश में उन्हें पीड़ा, असुविधा और अपमान सहना पड़ रहा है।”
जब उनसे पूछा गया कि क्या नोटबंदी का कुछ सकारात्मक असर दिखेगा जैसा कि प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं तो उन्होंने कहा, “यह मुश्किल लगता है। यह ठीक वैसा ही लगता है जैसा कि सरकार ने विदेशों में पड़े काला धन भारत वापस लाने और सभी भारतीयों को एक गिफ्ट देने का वादा किया था और फिर सरकार उस वादे को पूरा करने में असफल रही।”

सेन ने कहा, जो लोग काला धन रखते हैं उन पर इसका कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है लेकिन आम निर्दोष लोगों को नाहक परेशानी उठानी पड़ रही है। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने हर आम आदमी और छोटे कारोबारियों को सड़कों पर ला खड़ा किया है। सेन ने सरकार के उस दावे का भी खंडन किया है कि हर दर्द के बाद का सुकून फलदायी होता है। सेन ने कहा ऐसा कभी-कभी होता है। उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए कहा, “अच्छी नीतियां कभी-कभी दर्द का कारण बनती हैं, लेकिन जो कुछ भी दर्द का कारण बनता है – चाहे कितना भी तीव्र हो – यह जरूरी नहीं कि वो अच्छी नीति ही हो।”
https://www.facebook.com/shiv.yadav.370515/posts/1276510362422519


शिव बदन यादव

    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Friday, 11 November 2016

उत्तर प्रदेश की जनता की ज़रूरत है सपा / भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चा ------ विजय राजबली माथुर

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* जिनहोने भाजपा ऊमीद्वार पूर्व प्रधानमंत्री को सपा प्रत्याशी के तौर पर चुनावी चुनौती दी थी जब उनकी ही यह पीड़ा है तब औरों का क्या कहना ?
** 11 नवंबर 2016 के हिंदुस्तान, लखनऊ अंक के पृष्ठ 02 पर समाचार छ्पा है कि, सपा किसी पार्टी से गठबंधन नहीं करेगी जिसको विलय करना हो वह सपा में विलय कर सकता है। 
*** वस्तुतः 2017 का चुनाव 2012 की तर्ज़ पर और 2019 का चुनाव 2014 की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा। अगर सपा का अन्य दलों से गठबंधन होता तब यह फार्मूला कैसे लागू हो पाता ? आर एस एस को भाजपा के अलावा दूसरे दलों में स्थित (बैठाये हुये ) अपने समर्थकों पर पूर्ण भरोसा है और उनका लाभ संविधान संशोधन के वक्त उठाना है। 

**** यह तो भाजपा विरोधी दलों का कर्तव्य है कि, वे आपसी टांग - खिंचाई छोड़ कर एकजुट हों तथा भाजपा को उसके समर्थकों सहित पराजित करने हेतु जनता के समक्ष मजबूत विकल्प दें। यदि वास्तव में लक्ष्य भाजपा को परास्त करना होगा तब कांग्रेस,बसपा,वामपंथी दलों समेत सभी जंतान्त्रिक दलों का गठबंधन सपा/भाजपा गठजोड़ के विरुद्ध सामने आयेगा वरना तो होइहें वही जे आर एस एस रची राखा।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1223776617684312&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=3&permPage=1

("**** यह तो भाजपा विरोधी दलों का कर्तव्य है कि, वे आपसी टांग - खिंचाई छोड़ कर एकजुट हों तथा भाजपा को उसके समर्थकों सहित पराजित करने हेतु जनता के समक्ष मजबूत विकल्प दें। यदि वास्तव में लक्ष्य भाजपा को परास्त करना होगा तब कांग्रेस,बसपा,वामपंथी दलों समेत सभी जंतान्त्रिक दलों का गठबंधन सपा/भाजपा गठजोड़ के विरुद्ध सामने आयेगा वरना तो होइहें वही जे आर एस एस रची राखा।")

लेकिन अब प्रश्न यह है कि, क्या ऐसा होगा? अथवा भाजपा को हटाने/हराने का नारा सिर्फ नारा ही है केवल दिखावे का ढोंग है ढोंग !
सबसे पुरानी पार्टी आज 1925 में स्थापित  'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ' ही है क्योंकि उससे पूर्व  1885  में स्थापित दो बैलों की जोड़ी वाली  'इंडियन नेशनल कांग्रेस ' 1969 में कांग्रेस (ओ ) व कांग्रेस ( आर ) में विभाजित हो गई थी एवं  चरखा चलाती महिला वाला उसका संगठन पक्ष 1977 में 'जनता पार्टी ' में विलीन हो गया था।  गाय -बछड़ा वाली कांग्रेस ( आर ) बाद में विभाजित हो कर 'पंजा ' वाली ' कांग्रेस ( आई )' बनी जो आज सोनिया/राहुल गांधी के नेतृत्व में चल रही है और अनधिकृत रूप से 131 वर्ष पुरानी कांग्रेस होने का दावा कर रही है। और क्यों न करे जब अब सबसे पुरानी भाकपा का  ब्राह्मण वादी नेतृत्व ही अपने दावे को सामने लाने से कतराता है। 
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी कहते थे- इंडिया दैट इज़ भारत दैट इज़ उत्तर प्रदेश - 1925 में स्थापित आर एस एस का दूसरा राजनीतिक संस्करण भाजपा इसी सिद्धान्त पर चल कर 1991 में यू पी में पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुका है। तभी 1998 से 2004 एवं पुनः 2014 से केंद्र की सत्ता में आ सका है। 
लेकिन 1925 में स्थापित भाकपा के लिए उत्तर प्रदेश का कोई महत्व नहीं है। जबकि रघुवीर सहाय 'फिराक गोरखपुरी ' का विश्लेषण काफी सटीक है कि, मेरठ/ कानपुर डायगनल से शुरू आंदोलन विफल रहे हैं चाहे वे 1857 की प्रथम क्रांति हों अथवा किसान आंदोलन। एवं आगरा  / बलिया डायगनल से प्रारम्भ आंदोलन पूरे उत्तर प्रदेश में फैल कर राष्ट्रीय आंदोलन बने और सफल रहे हैं। चाहे 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हो अथवा अन्य कोई। 
1992 में आगरा में सम्पन्न प्रदेश भाकपा के सम्मेलन के बाद बजाए भाकपा के प्रसार के 1994 में विभाजन हो गया। क्यों? क्योंकि ब्राह्मण वादी मानसिकता का नेतृत्व  पिछड़ा वर्ग से संबन्धित मित्रसेन जी यादव / राम चंद्र बख्श सिंह जी को स्वीकार नहीं कर सका और उनको हटना पड़ा। उसी मानसिकता ने कौशल किशोर जी  के नेतृत्व में दलित वर्ग को भाकपा से अलग किया। दो- दो विभाजनों के बाद भी 2015 में पिछड़ा व दलित वर्ग से संबन्धित पूर्व भाकपा विधायक प्रत्याशियों को पार्टी से अलग होना पड़ा । क्यों? क्योंकि, ब्राह्मण वादी मानसिकता के नायक का कथन है कि, पिछड़े व दलित कामरेड्स से सिर्फ काम लिया जाये उनको कोई पद न सौंपा जाये। 
भारत का सर्व हारा वर्ग दलित समुदाय से ही संबन्धित है जिसका भाकपा में कोई  सम्मानित स्थान नहीं है। बगैर सर्व हारा के समर्थन व सहयोग के 'मास्को रिटर्न ' ब्राह्मण वादी  नेतृत्व 'आर्थिक आधार ' पर सफलता की कपोलकल्पित मृग मरीचिका में विचरण करते हुये 2017 के चुनाव में मात्र 200 सीटों पर चुनाव लड़ कर व्यवस्था परिवर्तन का थोथा दावा कर रहा है जबकि, पूर्ण बहुमत हेतु 202 विधायकों के समर्थन की आवश्यकता होती है। नौ नवंबर की वामपंथी रैली से लखनऊ वासी राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान को दूर रखा गया व उनके स्थान पर डी राजा साहब से अङ्ग्रेज़ी में भाषण दिलवा कर हिन्दी प्रदेश की जनता को उपेक्षित किया  गया है। क्या ब्राह्मण वादी / मोदीईस्ट इन गतिविधियों के बल पर भाजपा / सपा  गुप्त - गठजोड़ को सत्ता से अलग रखा जा सकता है? यह विशेष विचारणीय विषय है।  


    संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 22 October 2016

सरकार का स्थाईत्व और शपथ - कुंडली ------ विजय राजबली माथुर

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काफी दिनों से अखबारों की सुर्खियों में उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी की अंतर्कलह के तमाम किस्से छप रहे हैं । शपथ - ग्रहण के अगले दिन 16 मार्च 2012 को मैंने उसका विश्लेषण अपने ब्लाग में दिया था उसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है कुछ नई सूचनाओं के साथ । 




Friday, March 16, 2012

ग्रहों के आईने मे अखिलेश सरकार
http://krantiswar.blogspot.in/2012/03/blog-post_16.html



 हम यहाँ आपको अखिलेश यादव जी की शपथ-कुण्डली के आधार पर ग्रह-नक्षत्रो की चाल से अवगत कराएंगे,यह जानते हुये भी कि आप मे से तथाकथित प्रगतिशील और तथाकथित विज्ञानी महानुभाव इसकी कड़ी आलोचना करेंगे।

अखिलेश यादव जी ने लखनऊ मे सुबह 11-30 मिनट पर 'पद एवं गोपनीयता की शपथ' ग्रहण की है। चैत्र कृष्ण अष्टमी विक्रमी संवत 2068,शक संवत 1933  ,गुरुवार,मूल नक्षत्र,साध्य योग एवं कौलव करण मे शपथ ग्रहण हुआ है और उस समय लखनऊ के पूर्वी क्षितिज पर 'वृष' लग्न थी,हालांकि समारोह के मध्य ही मिथुन लग्न भी लग गई और कुछ मंत्रियों का शपथ ग्रहण दूसरी लग्न मे भी हुआ परंतु हम मुख्यमंत्री की शपथ को ही सरकार के भविष्य के लिहाज से लेंगे।

पहले यह देख लें कि मतदान 08 फरवरी से 04 मार्च के मध्य उत्तर प्रदेश मे सम्पन्न हुआ था जिस समय 'शनि'और 'मंगल'वक्री चल रहे थे जिसका परिणाम सचिव,सभासद हेतु आपदा कारक था। 29 तारीख की प्रातः 'शुक्र' मेष राशि मे 'गुरु'के साथ आ गया था जिसका फल सत्ता नायक और सत्ता दल पर भारी था। अतः 06 मार्च को घोषित परिणाम बसपा सरकार के विरुद्ध गया और मायावती जी को पद छोडना पड़ा। किन्तु अखिलेश जी ने मनोनीत होने के बावजूद किसी न किसी बहाने से तुरंत शपथ नहीं ली।

स्थिर लग्न-वृष मे शपथ ग्रहण :

चैत्र कृष्ण सप्तमी =14 मार्च को 'सूर्य' 'मीन राशि' मे प्रवेश कर गया जो दलपति-नायक,राजदूत,राजपत्रित अधिकारियों हेतु शुभ है अतः अखिलेश जी ने 15 मार्च को सुबह स्थिर लग्न-वृष मे शपथ ग्रहण किया। ऊपर उस समय की कुण्डली दी गई है अवलोकन करें। तिथि अष्टमी सर्वथा शुभ तिथि होती है,नक्षत्र-'मूल' का प्रभाव यह होगा कि वह अखिलेश जी को यशस्वी,समाजसेवी,कला और विज्ञान का प्रेमी बना कर साहस,कर्मठता,नेतृत्व शक्ति का धनी और उत्तम विचारो का पोषक भी बनाएगा।

'चंद्रमा' धनु राशि मे होने के कारण हठवादी, चतुर और मधुर-भाषी बनाए रखेगा। गुरुवार का दिन तो शपथ ग्रहण के लिए शुभ होता ही है। 'वृष'लग्न स्थिर होने के कारण सामान्यतः सरकार को 'स्थिर' रखेगी। जन -समाज का स्नेह-भाजन मुख्यमंत्री को बनाने वाली लग्न रहेगी।

शपथ-ग्रहण के समय 'शुक्र' की महादशा मे 'शुक्र' की ही अंतर दशा थी जो अभी 08 जून 2015 तक चलेगी जो सरकार के लिए शुभता प्रदान करती रहेगी। शपथ-कुण्डली का दूसरा भाव (जो जनता तथा राज्य कृपा का भाव है ) तथा पंचम भाव ( जो लोकतन्त्र का है )का स्वामी होकर बुध एकादश भाव मे सूर्य के साथ है। अतः बुद्धिमानी द्वारा हानि पर नियंत्रण पाने की क्षमता बनी रहेगी।

सरकार के स्थाईत्व हेतु शुभ नहीं :

तीसरा भाव पराक्रम और जनमत का है जिसका स्वामी होकर चंद्रमा अष्टम भाव मे चला गया है जो सरकार के स्थाईत्व हेतु शुभ नहीं है।

सातवें भाव (जो सहयोगियों,राजनीतिक साथियों एवं पार्टी नेतृत्व का है )का स्वामी मंगल चतुर्थ भाव (जो लोकप्रियता व मान-सम्मान का है )मे सूर्य की राशि मे स्थित है । यह स्थिति शत्रु बढ़ाने वाली है इसी के साथ-साथ सातवें भाव मे मंगल की राशि मे 'राहू' स्थित है जो कलह के योग उत्पन्न कर रहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के मध्य काल तक पार्टी मे अंदरूनी कलह-क्लेश और टकराव बढ़ जाएँगे। ये परिस्थितियाँ पार्टी को दो-फाड़ करने और सरकार गिराने तक भी जा सकती हैं। निश्चय ही विरोधी दल तो ऐसा ही चाहेंगे भी।

लेकिन 09 जून 2015 से प्रारम्भ शुक्र मे सूर्य की अंतर दशा और फिर 09 जून 2016 से प्रारम्भ चंद्र की अंतर दशाओं के भी शुभ रहने एवं शपथ ग्रहण के दिन गुरुवार ,मूल नक्षत्र,और चंद्रमा के गुरु की धनु राशि मे होने तथा तिथि अष्टमी रहने के कारण अखिलेश जी अपनी कुशाग्र बुद्धि से सभी समस्याओं का निदान करने मे सफल रहेंगे ऐसी संभावनाएं मौजूद हैं और सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सकेगी ऐसी हम आशा करते हैं ।
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अभी सरकारी पार्टी के समक्ष बार - बार जो संकट दिखाई दे रहे हैं उनका एक बड़ा कारण अखिलेश जी द्वारा 5 कालीदास मार्ग के सरकारी निवास में 'रविवार ' के दिन 'गृह - प्रवेश ' करना भी है। जिस किसी ने भी उनको इस हेतु रविवार का दिन सुझाया उसको उनका हितैषी नहीं कहा जा सकता है। 'वास्तु - शास्त्र ' के अनुसार रविवार व मंगलवार के दिन तथा नवमी तिथि समेत कुछ तिथियों पर गृह प्रवेश का निषेद्ध् किया गया है अतः ऐसा सुझाव वास्तु शास्त्र के नियमों का उल्लंघन था जिसका असर पार्टी की अंदरूनी टकराहट के रूप में दिखाई दे रहा है। अखिलेश जी को तुरुप का पत्ता खूब ठोंक बजा कर ही चलना होगा, वैसे शपथ ग्रहण उनके अनुकूल है। 
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बहुत से लोगों का यह मत है कि, अखिलेश सरकार को लेकर हो रही बातें उनके अपने परिवार या पार्टी का आंतरिक मामला हैं। चूंकि सरकार किसी एक परिवार के लिए या सिर्फ एक ही पार्टी के लोगों के लिए नहीं होती है उसे सारी जनता को देखना होता है। इसलिए इन बातों को पार्टी या परिवार की निजी बातें कह कर छोड़ देना बुद्धिमानी नहीं है। 
वर्तमान संकट तब शुरू हुआ जब मुख्यमंत्री ने मुख्य सचिव को पूर्व अनुमति लिए बगैर व्यापारियों / उद्योगपतियों की एक निजी पार्टी में शामिल होने के कारण हटा दिया था। बदले में उनकी पार्टी ने उनको प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया था।इतना ही नहीं उनके नज़दीकियों को भी पदों से हटा दिया और कुछ को पार्टी से ही हटा दिया था। इससे सरकार के मुखिया की स्वतन्त्रता पर प्रश्न - चिन्ह लगता है और बाहरी व्यापारिक हस्तक्षेप की पुष्टि भी होती है। यह हस्तक्षेप अलोकतांत्रिक  गतिविधियों का प्रतीक है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि, फासिस्ट संगठन केंद्र सरकार की गतिविधियों में हस्तक्षेप करता है। यह प्रक्रिया संविधान व जनतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। अतः जनतंत्र व संविधान के पक्षधरों को इस समय उत्तर - प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव को नैतिक समर्थन  अवश्य ही प्रदान करना चाहिए। 

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फेसबुक कमेंट्स :
04-10-2016 
23-10-2016 

Friday, 21 October 2016

जाऊंगा ख़ाली हाथ मगर, यह दर्द साथ ही जाएगा : अशफाकुल्लाह खां ------ ध्रुव गुप्त





Dhruv Gupt
हमारा क्या है अगर हम रहें, रहें न रहें !
काकोरी के शहीद अशफाकुल्लाह खां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी सेनानी और 'हसरत' उपनाम से उर्दू के अज़ीम शायर थे। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर शाहजहांपुर में जन्मे अशफाक ने अपनी किशोरावस्था में अपने ही शहर के क्रांतिकारी शायर राम प्रसाद बिस्मिल से प्रभावित होकर अपना जीवन वतन की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया था। वे क्रांतिकारियों के उस जत्थे के सदस्य बने जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्सी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल शामिल थे। चौरी चौरा की घटना के बाद महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के फ़ैसले से इस जत्थे को बेहद पीड़ा हुई। 8 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर में रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में इस क्रांतिकारी जत्थे की एक अहम बैठक हुई जिसमें अपने अभियान हेतु हथियार खरीदने के लिए ट्रेन से सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनी। उनका मानना था कि यह वह धन अंग्रेजों का नहीं था, अंग्रेजों ने उसे भारतीयों से ही हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफाकउल्ला खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ क्रांतिकारियों के दल ने सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन से अंग्रेजों का खजाना लूट लिया। अंग्रेजों को हिला देने वाले काकोरी षड्यंत्र के नाम से प्रसिद्द इस कांड में गिरफ्तारी के बाद जेल में अशफ़ाक़ को यातनाएं देकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिशें हुईं। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो उस पर मुस्लिमों का नहीं, हिन्दुओं का राज होगा और मुस्लिमों को कुछ भी नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफ़ाक़ ने कहा था - 'तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई को अब नहीं दबा सकते। अब हिन्दुस्तान आज़ाद होकर रहेगा। अपने दोस्तों के ख़िलाफ़ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूंगा।'
अंततः संक्षिप्त ट्रायल के बाद अशफ़ाक, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा और बाकी लोगों को चार साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई गई। अशफ़ाक को 19 दिसंबर, 1927 की सुबह फैज़ाबाद जेल में फांसी दी गई। फांसी के पहले अशफाक ने वजू कर कुरआन की कुछ आयतें पढ़ी, कुरआन को आंखों से लगाया और ख़ुद जाकर फांसी के मंच पर खड़े हो गए। वहां मौज़ूद जेल के अधिकारियों से यह कहने के बाद कि 'मेरे हाथ इन्सानी खून से नहीं रंगे हैं। खुदा के यहां मेरा इन्साफ़ होगा।', उन्होंने अपने हाथों फांसी का फंदा अपने गले में डाला और झूल गए। यौमे पैदाईश (22 अक्टूबर) पर शहीद अशफ़ाक़ को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि, उनकी लिखी एक नज़्म के साथ !
जाऊंगा ख़ाली हाथ मगर, 
यह दर्द साथ ही जाएगा 
जाने किस दिन हिंदोस्तान 
आज़ाद वतन कहलाएगा
बिस्मिल हिन्दू हैं, कहते हैं 
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा 
फिर आकर ऐ भारत माता 
तुझको आज़ाद कराऊंगा
जी करता है मैं भी कह दूं 
पर मज़हब से बंध जाता हूं
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की 
बात नहीं कर पाता हूं
हां ख़ुदा अगर मिल गया कहीं 
अपनी झोली फैला दूंगा 
और जन्नत के बदले उससे 
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1164221863654410&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=3

Sunday, 16 October 2016

मानवों के कार्य-व्यवहार से प्रकृति में उथल-पुथल : भगदड़ ------ विजय राजबली माथुर

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 कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के। 

प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है।...................किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है। .............क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।





 नई दुनिया छोड़ कर जब डॉ राजेन्द्र माथुर साहब  ने नवभारत टाईम्स के प्रधान संपादक का दायित्व ले लिया था तब एक सम्पादकीय लेख में उन्होने पर्यावरण के संबंध में चेतावनी दी थी कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो अगले बीस वर्षों में देश की जलवायु बदल जाएगी।उनकी चेतावनी से समाज  कुछ भी नहीं बदला बल्कि  पर्यावरण -प्रदूषण पहले से भी ज़्यादा बढ़ गया है। नदियां अब नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं।  अति वर्षा,अति सूखा, अति शीत,भू-स्खलन,बाढ़ आदि प्रकोप जीवनचर्या का अंग बन चुके हैं। 'गंगा की सफाई' के लिए स्वामी निगमानंद का बलिदान हो चुका है और अब इज़राईल की दिलचस्पी गंगा की सफाई में है।

हालांकि प्रगतिशीलता व वैज्ञानिकता की आड़ में बुद्धिजीवियों का एक प्रभावशाली तबका 'ज्योतिष' की कड़ी निंदा व आलोचना करता है। परंतु ज्योतिष=ज्योति +ईश अर्थात ज्ञान -प्रकाश देने वाला विज्ञान। जिस प्रकार ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव मानव समेत सभी प्राणियों व वनस्पतियों पर पड़ता है उसी प्रकार मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र भी प्रभावित होते हैं। इसे एक छोटे उदाहरण से यों समझें:
एक बाल्टी पानी में एक गिट्टी उछाल दें तो हमें तरंगें दीखती हैं परंतु वही गिट्टी नदी या समुद्र में डालने पर हमें तरंगें नहीं दीखती हैं परंतु बनती तो हैं। वैसे ही मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र प्रभावित होते हैं। जिसका पता प्रकृति में होने वाली उथल-पुथल से चलता है। कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।वाराणासी की ताज़ातरीन भगदड़ भी ऐसी ही घटना है जिसके मूल में पाखंड-आडंबर और ढोंग के प्रदर्शन का हाथ है। लेकिन इन सबसे व्यापार जगत को भरपूर मुनाफा होता है इसलिए केंद्र व प्रदेश सरकारें मृतकों व घायलों को मुक्त - हस्त से आर्थिक सहायता देकर ऐसे ढोंग -पाखंड को ही मजबूत करती हैं बजाए लोगों को शिक्षित करके ऐसे प्रकृति - विरोधी आयोजनों से दूर रहने की प्रेरणा देने के। 
प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है। धर्म= मानव जीवन और मानव समाज को  धारण करने हेतु  जो आवश्यक है  जैसे कि ,'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये -यही धर्म है। परंतु 'एथीस्टवाद' के कारण इसे नकार दिया जाता है और ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा दी जाती है जबकि वह तो व्यापारियों/उद्योगपतियों द्वारा जनता की लूट व शोषण के उपबन्ध हैं। किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है। 

कुछ अति प्रगतिशील वैज्ञानिक 'ग्रह-नक्षत्रों'के प्रभाव को ही नहीं मानते हैं वैसे लोगों की मूर्खता के ही परिणाम हैं विभिन्न प्राकृतिक-प्रकोप। 


यदि ग्रह-नक्षत्रों का प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है तो वहीं प्राणियों का सामूहिक प्रभाव भी ग्रह-नक्षत्रों पर पड़ता है। एक बाल्टी में पानी भर कर उसमें गिट्टी फेंकेंगे तो 'तरंगे'दिखाई देंगी। यदि एक तालाब में उसी गिट्टी को डालेंगे तो हल्की तरंग मालुम पड़ सकती है किन्तु नदी या समुद्र में उसका प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होगा परंतु 'तरंग' निर्मित अवश्य होगी । इसी प्रकार  सीधे-सीधी तौर पर मानवीय व्यवहारों का प्रभाव ग्रहों या नक्षत्रों पर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता उसका एहसास तभी होता है जब प्रकृति दंडित करती है जैसे-उत्तराखंड त्रासदी,नर्मदा मंदिर ,कुम्भ और अब वाराणासी की भगदड़ आदि , क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के।


 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

Saturday, 15 October 2016

देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है ------ ध्रुव गुप्त /प्रशासन का रवैया क्षोभपूर्ण ------ मधुवन दत्त चतुर्वेदी

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Dhruv Gupt

हमीं से मोहब्बत, हमीं से लड़ाई ! : 
अभी-अभी बृन्दावन में आयोजित नास्तिकों के सम्मेलन और वहां के कुछ धार्मिक संगठनों के विरोध के बाद आस्तिकता बनाम नास्तिकता का विवाद एक बार फिर विमर्श के केंद्र में है। यह विवाद हमारे देश में हमेशा से चला आ रहा है। प्राचीन भारत में नास्तिकता के सबसे बड़े पैरोकार ऋषि चार्वाक थे जिन्होंने तर्क सहित किसी दैवी सत्ता, स्वर्ग-नरक और धार्मिक कर्मकांडों के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। बौद्ध धर्म ने भी किसी पारलौकिक सत्ता का उल्लेख नहीं किया, लेकिन उसकी निर्वाण की परिकल्पना में मृत्यु के बाद किसी न किसी रूप में जीवन की उपस्थिति का स्वीकार अवश्य है। सच तो यह है कि मनुष्य द्वारा ईश्वर और विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक देवी-देवताओं के आविष्कार के पूर्व समूची मानवता नास्तिक ही थी। आप इसे अच्छी कह लीजिए या बुरी, ईश्वर की खोज दुनिया को मानसिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रभावित करने वाली सबसे प्रमुख खोज थी। तबसे हर दौर में कुछ लोग या कोई न कोई विचारधारा ईश्वर की परिकल्पना का निषेध और प्रतिकार करती रही है। विज्ञान भी किसी पारलौकिक सत्ता के अस्तित्व से इनकार करता है। इसके बावज़ूद आस्तिकता की अवधारणा के पीछे कुछ तो ऐसा है कि आज वैज्ञानिक कहे जाने वाली इक्कीसवी सदी में भी देश-दुनिया में आस्तिकों की संख्या नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आंकी गई है। शायद जीवन की कठोर परिस्थितियों में अपने से इतर समूची सृष्टि के प्रति करुणा, दया, प्रेम, क्षमा और वात्सल्य से भरी किसी नियामक सत्ता पर भरोसा बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी ऐसे लोगों को जीने का संबल देती रही है। जीवन की परिस्थितियां जितनी जटिल होंगी सर टिकाने लायक किसी अभौतिक सत्ता की ज़रुरत उतनी ही बढ़ेगी। आप इसे अंधविश्वास, अफीम या यथास्थिति का स्वीकार कह लीजिए, लेकिन अगर यह भावनात्मक संबल और उम्मीद भी लोगों से छिन जाय बहुत से लोगों के पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता न बचेगा।

दुनिया में जो दस प्रतिशत लोग ख़ुद को नास्तिक कहते हैं, उनमें भी ऐसे हार्डकोर नास्तिकों की संख्या एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं है जो अपनी अनास्था के साथ तमाम तर्क सहित मजबूती से टिके हुए हैं। इस दस प्रतिशत में निन्यानबे प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें ठीक-ठीक पता नहीं कि वे वस्तुतः आस्तिक हैं अथवा नास्तिक। ये विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते वे ऐसे लोग हैं जिनकी आस्तिकता भी संदिग्ध है और नास्तिकता भी। इनकी ईश्वर के बारे में सोचने या जानने में कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन मन के किसी कोने में छुपा हुआ एक डर भी है कि अगर सचमुच कोई ईश्वर हुआ तो जीते जी या मरने के बाद उनकी क्या गति होगी। उनका मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्च में भरोसा नहीं है, लेकिन किसी भी धर्म के पूजा-स्थल से गुज़रते हुए ऐसे लोगों के सर स्वतः झुक जाते हैं। पूजा-पाठ और कर्मकांड में आस्था न होते हुए भी वे शादी-ब्याह, श्राद्ध आदि के पारिवारिक आयोजनों में भागीदारी कर लेते हैं। जो धार्मिक रूढ़ियों का प्रखर विरोध भी करते हैं और छिपाकर कपड़ों के नीचे जनेऊ भी धारण करते हैं। सामने खड़ी किसी मुसीबत को देखकर इनके मुंह से 'हे विज्ञान', 'हे मार्क्स' या 'हे तर्कशास्त्र' की जगह 'हे भगवान' 'ओह गॉड' या 'या अल्लाह' ही निकलता है। लब्बोलुबाब यह कि आस्तिकता की जड़ें हमारे भीतर बहुत गहरी हैं। आस्तिकों और दुविधाग्रस्त लोगों में तो है ही, नास्तिकों में कुछ ज्यादा ही गहरी है। इतनी गहरी कि उन्हें चीख-चीखकर और मजमें जुटाकर इसकी घोषणा करनी पड़ती है। जैसे मुहब्बत जितनी गहरी, मुहब्बत के खिलाफ़ अभियान भी उतना ही प्रखर। बहरहाल दुनिया है तो क़िस्म-क़िस्म के वैचारिक द्वंद्व भी रहेंगे। यही दुनिया की खूबसूरती है। सबको अपनी आस्था, अनास्था के साथ जीने का अधिकार है और दोनों की सीमा-रेखा पर खड़े लोगों को इस पूरे संघर्ष का मज़ा लेने का भी।
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वास्तविकता यह है कि, प्रचलित 'आस्तिक ' और 'नास्तिक ' शब्द 'भ्रम ' उत्पन्न करते हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार 'आस्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास है' और 'नास्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है' । 
पाखंडी और नास्तिक दोनों संप्रदायों के विद्वान गफलत में जी रहे हैं और मानवता को गुमराह कर रहे हैं।समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं। 
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
'ईश्वर ' का अर्थ है जो ऐश्वर्य सम्पन्न हो । आज कल पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है । दुनिया से परे जीवन की कल्पना पर इस दुनिया में आग लगाना किसी भी प्रकार से बुद्धिमत्ता नहीं है। 
(विजय राजबली माथुर ) 

 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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